
أعلم يا سيدتي بأن حبـكِ..
أساس الحضـارة ْ..!!
منتهى الحضـارة ْ..!!
و لا أبالي بأن أنصُبَ خيمتي في قلبـكِ..
وسط ألفِ قصر ٍ و ألفِ عمـارة ْ..!!
و لا أبالي إن رسموكِ على ورق ٍ..
فأنا أنقـُشكِ في الحجـارة ْ..!!
و الأبدية ُ يا (تمثالي) للحجارة ْ..!!!
فما يقلقـني فعلاً..
هو رغبتي القاتلة..
في تعلم العـزفْ..!!
في إتقان العـزفْ..!!
في خلق العـزفْ..!!!
أسألـكِ بربـكِ..
أ يهمـكِ بعد ذلك تـرفْ..؟!
أ يهمـكِ بعد ذلك عدد الخـدمْ..
عدد النجـفْ..
عدد الغـُرفْ..
عدد الشـُرفْ..
داخل خيمـتـ(نـ)ـا المنهـارة ْ..؟!
فأنتظـريني أنا..
الشرقـيّ.. الجاهليّ..
حافيّ القدمين..
بالموسيقى إليكِ أ ُزفْ..!!
بالألحـان ِ إليكِ أ ُزفْ..!!
لِأعـزِفني سيمفونية لأجلكِ تنـزِفْ..!!!
لِأعزفـكِ بكل ِ جـدارة ْ..!!!
و ما أنتّـنَ يا معشر الإناث سوى
ملائكة قلوبهن..
.
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قيثـارة ْ..!!!
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